Thursday, August 23, 2018

गीत नया गाता हूँ!





कलयुग का दौर है, पाप है चरम पर 
कडुवाहट है भरपूर दिलों में पर रुख नरम है
शैतान और इंसान के बीच का भेद बूझता हूँ, बतलाता हूँ
गीत नया गाता हूँ!


कठिनाई है बहुत जीवन में, सरलता से गरल पी जाता हूँ
आज बेहतर था, कल बेहतरीन होगा और परसों जन्नत सा माहौल, 
इसी उधेडबुन में ज़िम्मेदारियों का बोझ गिराता-संभालता हूँ
गीत नया गाता हूँ!


अनदेखे कल की चाहत में, सुनहरे आज को नहीं भूला हूँ
कोयले सा तपा कभी, बर्फ सा कभी पिघला हूँ
इस तपने-पिघलने में भी अलग ही मज़ा है
मानो तो अाजमाइश, वरना सज़ा है 
जीवन का अपने बस यही फलसफा है
खोया है कम, पाया बहुत दफा है
इसिलिये ज़िन्दगी का साज़, मेहफिलों में बजाता हूँ
गीत नया गाता हूँ!!


जब कभी भी दिल के दरिया में उमंगों का सैलाब जगे
सोमवार का हाहाकार हो, चाहे इतवार का इतमिनान हो 
ओल्ड मोंक में थमस्-अप घोलता हूँ, मिलाता हूँ
गीत नया गाता हूँ!


संजीदगी से कहूँ कभी, कभी मज़ाक में ले जाता हूँ 
अटल जी सा 'अटल' तो कभी मोदी-राहुल सा गले पड़ जाता हूँ 
काल के कपाल पर, लिखता हूँ मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ!



1 comment:

Abhijeet said...

Kavita bohot achhi hai bhai… everyday life with a tinch of humour… mast!!!